रोज की तरह आज भी दोनों पतिपत्नी प्रशांत और गुंजन रात का खाना खाने के बाद टहलने के लिए घर से निकल पड़े थे.
प्रशांत एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में इंजीनियर के पद पर कार्यरत है और गुंजन एक ट्रैवल एंड टूर कंपनी में काम करती है. दोनों अच्छाखासा वेतन पाते हैं. सुखसुविधा के हर साजोसामान से घर भरा पड़ा है. दफ्तर दोनों ही अपनीअपनी कार से आतेजाते हैं.
शरीर का थोड़ाबहुत व्यायाम हो जाए और पतिपत्नी को परस्पर एकदूसरे से बातचीत का अवसर मिल जाए, इस उद्देश्य से दोनों रोज ही घर से लंबी सैर के लिए निकलते हैं.
प्रशांत को पान खाने का भी शौक था. शहर की चर्चित पान की दुकान, आपस में बातचीत करते कब करीब आ जाती, उन्हें पता ही नहीं चलता था. पति के साथ गुंजन भी गुलकंद वाला मीठा पान खाने की आदी हो गई थी.
दोनों के विवाह को साढ़े 3 साल हो चुके हैं. प्रशांत के मातापिता घर में नन्हे बच्चे की किलकारियां सुनने को बेचैन हैं किंतु वे दोनों अपने ही कैरियर में व्यस्त, ऊंचाइयों को छूने की महत्त्वाकांक्षा मन में पाले हुए हैं.
प्रशांत पिछले कुछ अरसे से गुंजन को अपनी नौकरी बदलने के लिए जबतब कह देता, ‘‘अब हमें अपने परिवार की योजना बनानी चाहिए…तुम यह भागदौड़ वाली नौकरी छोड़ दो. इस में काफी समय खर्च करना पड़ता है. कहीं किसी अच्छे स्कूल में पढ़ाने की नौकरी का प्रयास करो. यू नो, टीचिंग लाइन में माहौल भी अच्छा…सभ्य मिलता है और छुट्टियां भी काफी मिल जाती हैं.’’
प्रशांत की इस सलाह का आशय गुंजन भलीभांति जानती है.
‘‘यह भी अच्छी नौकरी है…और फिर मेरी रुचि का काम भी है. दूसरी नौकरी क्या आसानी से मिल जाएगी? लगीलगाई बढि़या नौकरी छोड़ कर दूसरी नौकरी की तलाश के लिए भागदौड़ करना क्या सही होगा?’’ गुंजन के सवाल पर पुन: प्रशांत ने आपत्ति जाहिर करते हुए कहा, ‘‘लेकिन गुंजन, सारा दिन पुरुष ग्राहकों के साथ डील करना…’’
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प्रशांत के मन की बात भांप कर गुंजन बीच में ही बात काटती हुई बोली, ‘‘अच्छा ठीक है. इस बारे में सोचूंगी.’’
इनसान की प्रकृति भी विचित्र होती है. जीवनसाथी के रूप में उसे एक पढ़ीलिखी आधुनिका पत्नी की भी कामना होती है और साथ ही वह नौकरीपेशा, अच्छा वेतन पाने वाली पत्नी की भी उम्मीद करता है और वह यह भी चाहता है कि उस की पत्नी घरपरिवार का पूरा खयाल रखे, घर के हर सदस्य की जरूरत पर तुरंत हाजिर हो.
किंतु इनसान के भीतर की परंपरा- वादी सोच औरत को अपने कार्यक्षेत्र में पुरुष सहकर्मियों के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम करने को भी सहजता से पचा नहीं पाती.
प्रशांत की ठेठ पुरुषवादी मान- सिकता गुंजन के व्यावसायिक संबंधों को ले कर जबतब सचेत हो जाती.
जब कभी गुंजन कार्य की अधिकता के चलते घर देर से वापस आती तो प्रशांत के दिल व दिमाग पर संदेह का कीड़ा कुलबुलाने लगता.
गुंजन के समक्ष उस की वाणी तो मौन रहती किंतु आंखों और चेहरे के अप्रिय भाव कई सवाल पूछते प्रतीत होते थे.
गुंजन के नाम कोई भी पत्र आता तो प्रशांत पहले पढ़ता. उस के फोन काल्स के बारे में जानने को उत्सुक रहता. आफिस के मामलों में गुंजन से कैफियत मांगता रहता.
ऐसे मौकों पर गुंजन तिलमिला कर रह जाया करती थी. वह सोचती थी कि आज के दौर में व्यक्ति को खुले दिमाग का अवश्य होना चाहिए. पर प्रत्यक्ष वह प्रशांत के हर प्रश्न का सटीक उत्तर दे कर उन की जिज्ञासाएं शांत कर देती थी और अपनी मधुर खिलखिलाहट से वातावरण को हलकाफुलका बना देती थी.
‘‘प्रशांत, तुम इतने पजेसिव हो… शक्की हो…’’ उस के घुंघराले बालों में प्यार से उंगलियां फेरती वह कह उठती थी.
‘‘डियर, सभी मर्द ऐसे ही होते हैं,’’ प्रशांत उसे बांहों में भींच कह उठता था. तब गुंजन का तनमन खिल उठता था.
दोनों टहलते बातें करते जा रहे थे. तभी प्रशांत का मोबाइल बज उठा और वह फोन पर बात करता चला जा रहा था.
पति के पीछेपीछे चलती गुंजन पति के साथ कदम मिला कर चल नहीं पा रही थी क्योंकि जल्दबाजी में आज वह पुरानी चप्पल पहन आई थी. दौड़ कर पति के साथ कदम मिलाने के प्रयास में ठोकर खा कर गिरने को ही थी कि उस की चप्पल टूट गई थी.
प्रशांत अभी भी कान पर मोबाइल लगाए अपनी ही धुन में आगे निकल चुका था.
गुंजन ने पति को पुकारना चाहा किंतु पलक झपकते ही उस की आंखों के सामने काला अंधकार छा गया था. गुंजन के चेहरे को किसी ने कपड़े से कस कर ढांप दिया था और जबरदस्ती खींच कर कार में बिठा कार दौड़ा दी थी.
गुंजन ने हाथपैर मारने का बहुतेरा प्रयास किया किंतु सब व्यर्थ, उस के हाथपैरों को भी बांध दिया गया था.
लाचार और भयभीत गुंजन का दम घुटने लगा था. बेबस छटपटाहट से वह कुछ ही देर में सुधबुध खो बैठी थी.
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उधर प्रशांत स्तब्ध खड़ा गुंजन को यहांवहां देख रहा था. परेशान हो कर दौड़ता हुआ घर वापस आया पर वहां भी गुंजन को न पा कर उस के हाथों के तोते उड़ गए थे. वह अनजानी आशंका से भयभीत हो पुन: उसी रास्ते पर दौड़ कर आया और राह चलते लोगों, आसपास की दुकानों पर पूछताछ करने लगा. किंतु कोई लाभ न हुआ.
घर वापस आ कर परिचितों, रिश्तेदारों तथा मित्रों से फोन पर पूछताछ करने के बाद भी उसे निराशा ही हाथ लगी.
सारी रात आंखों ही आंखों में कट गई. पौ फटते ही अचानक फोन की घंटी बज उठी. प्रशांत ने लपक कर फोन का रिसीवर कान से लगाया और परेशान हो उठा.
गुंजन के अपहरण की जानकारी देते हुए अपहरणकर्ताओं ने फिरौती के रूप में एक बड़ी रकम की मांग की थी. साथ ही सख्त शब्दों में धमकी दी गई थी कि अपहरण की भनक या जानकारी पुलिस को नहीं लगनी चाहिए वरना पत्नी से हाथ धोना पड़ेगा.
पूरा घर सहम गया था. चुपचाप पुलिस को सूचना देते ही पुलिस तुरंत सक्रियता से छानबीन में जुट गई थी.
अपहरणकर्ता गुंजन को ले तुरंत शहर से सटे एक गांव में आए थे जहां एक छुटभैये गुंडा नेता की आलीशान कोठी निर्माणाधीन थी. उस कोठी के ही एक खास कोने में गुंजन को ला कर रख दिया गया था.
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उस निर्माणाधीन कोठी की हिफाजत और देखभाल के लिए नेता का एक खास कृपापात्र, जो दूर के रिश्ते में नेता का साला लगता था, रात में सोने के लिए आता था. कभीकभार उस के साथ पत्नी और बच्चे भी आ जाते थे.
गुंजन को वहीं छिपा कर अपहरणकर्ता खुद निडरता से फिरौती की रकम के लिए फोन करने के बाद उस के मिलने की प्रतीक्षा में थे. कोठी के मालिक का उन लोगों पर वरदहस्त था. अपहरणकर्ता इसलिए भी निश्ंिचत थे कि बंधी हुई बेबस चिडि़या आखिर यहां से कैसे कहीं भाग जाएगी? इसी सोच के चलते वे गुंजन की तरफ से लापरवाह थे.
प्रशांत दुखी- परेशान मन से पत्नी की सकुशल वापसी की प्रतीक्षा कर रहा था.
रात बीतने का एक प्रहर अभी शेष था, तभी गुंजन ने घर के मुख्यद्वार की घंटी बजा दी. प्रशांत ने दरवाजा खोला, बदहवास गुंजन को एकाएक सामने खड़ा देख वह दंग रह गया था. आश्चर्य मिश्रित हर्ष से उस का चेहरा खिल गया था.
गुंजन की रुलाई फूट पड़ी थी. डरीसहमी गुंजन पति के चौड़े सीने से लग रोतीबिसूरती बोली, ‘‘प्रशांत, उन अपहरणकर्ताओं ने मेरे खूबसूरत कंगन और कानों के कीमती ‘टौप्स’ निकाल लिए.’’
प्रशांत ने पत्नी की आंखों में झांका, ‘‘सिर्फ कंगन और कानों के झुमके ही गए?’’
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‘‘वह तो अच्छा हुआ उस दिन मैं ने अपना मंगलसूत्र गले से उतार कर सोनार को बनने के लिए दे दिया था क्योंकि उस की लडि़यों के मोती निकल गए थे,’’ गुंजन अपनी ही रौ में बोल रही थी, ‘‘गले में पहना होता तो वे निर्दयी उसे भी उतार लेते,’’ गुंजन ने सरलता से पति को देखते व्यथित मन से कहा.
किंतु प्रशांत की आंखों में उभरे विचित्र भावों को देख वह चौंक गई थी. सासससुर की आंखों में भी प्रश्नों की जिज्ञासाएं थीं.
केस खुदबखुद सुलझ गया था. पुलिस ने भी राहत की सांस ली.
गुंजन ने अपनी स्वयं घर वापसी की घटना घर के सदस्यों को कह सुनाई थी.
‘‘रात को उस खंडहरनुमा कोठी में एक महिला ने मुझे वहां बंधा हुआ देखा. पहले तो वह हैरान हुई फिर उस ने शायद किसी से फोन पर बात की और कुछ ही देर बाद मुझे बंधन से मुक्त कर तुरंत वहां से भगा दिया. उस ने ही मुझे पैसे भी दिए ताकि मैं घर वापस जा सकूं…मेरी आपबीती सुन कर उस महिला ने मुझे बताया था कि कोठी के मालिक उस के रिश्तेदार हैं…उस ने मुझे हिदायत दी कि मैं इस घटना का जिक्र किसी से न करूं…उस महिला ने वहां से भागने में मेरी मदद करते हुए कहा था, ‘तुम यहां बंधी रही हो, इस बात का जिक्र कहीं न करना…चुनावों का वक्त है…कोठी के मालिक की साख पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए… चुनावों का माहौल न होता तो तुम यहां से जा नहीं सकती थीं. इस वक्त चुनाव की चिंता है, उन्हें बस…’’’
गुंजन की सकुशल वापसी से सासससुर खुश थे…
‘‘बेटा, पुलिस की मदद से बहू के गहने तो उन लुटेरों से वापस ले लो…’’
गुंजन की सास को बहू के गहनों की चिंता सता रही थी किंतु गुंजन को गहनों से अधिक अपनी घरवापसी प्रिय लग रही थी.
गुंजन तो उम्मीद ही छोड़ चुकी थी उस अंधेरे नरक से वापसी की. उन बदमाशों की कैद में क्याक्या अनर्गल विचार…कैसीकैसी आशंकाएं उठती थीं उस के मन में. याद कर वह सिहर उठी थी.
भयंकर अट्टहास के साथ गुंजन ने उन बदमाशों के गंदे इरादे भी सुने थे, ‘‘यार, अब की बड़ा हाथ मारा है. कमाई तो अच्छी होगी ही…फिर इतनी खूबसूरत, जवान, ऐसा गदराया जिस्म है कि बस… खूब मजा आएगा,’’ यह कह कर उन्होंने गुंजन के जिस्म पर हाथ फेरा तो वह कसमसा उठी थी. हाथपैर बंधे थे, आंखें भी ढंकी थीं.
अपने समीप उन बदमाशों की पगध्वनि सुन कर गुंजन सहम गई थी और अपने सर्वनाश की कल्पना कर उस ने आंखें जोर से भींच लीं.
‘‘अरे, मजे फिर ले लेना. इस काम के लिए तुम्हें रोकूंगा भी नहीं, लेकिन इस के घर वाले ने पुलिस को इत्तला कर दी है इसलिए आज की रात तो पहले हमें अपनी जान बचानी है. कल जैसा जी में आए करना,’’ तीनों की सम्मिलित हंसी गूंज गई थी.
और उसी रात गुंजन उस अजनबी औरत के कारण घर वापस आ सकी थी.
गुंजन सहीसलामत अपने घर वापस आने पर खुश थी लेकिन घर का माहौल जैसे उसे कुछ बदलाबदला लग रहा था.
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प्रशांत का बदला व्यवहार उसे बेचैन कर रहा था. वह गुंजन से कुछ खिंचाखिंचा रहने लगा. गुंजन का बिना फिरौती दिए खुद ही घर वापस आ जाना उसे अस्वाभाविक लग रहा था. ‘सिर्फ जेवर ले कर ही अपहरणकर्ता खुश हो गए…क्या गुंजन उन के पास सहीसलामत रही होगी?’
प्रशांत के प्यार की गरमाहट समाप्त होती जा रही थी. दिनप्रतिदिन प्रशांत की उदासीनता और उपेक्षा से गुंजन दुखी और निराश रहने लगी थी.
इसी बीच दफ्तर के काम के दौरान उसे जबरदस्त चक्कर आ गया था. सिर घूम गया था. ‘शायद खानेपीने की लापरवाही से ऐसा हो,’ यह सोच कर वह कैंटीन की ओर बढ़ गई. किंतु जैसे ही कौर उठा कर मुंह में डाला तो उबकाई का उसे एहसास हुआ और वह उलटी के लिए टायलेट की ओर भागी. इस के बाद तो गुंजन निढाल सी हो गई और आफिस से छुट्टी ले डाक्टर के पास चली गई.
गुंजन का शक सही निकला. लेडी डाक्टर ने उसे गर्भवती होने की खुशखबरी सुनाई. गुंजन का तनमन खिल उठा. वह प्रशांत को यह खुशखबरी सुनाने को आतुर थी.
‘अब प्रशांत का व्यवहार भी उस के साथ अच्छा हो जाएगा, यह जान कर कि वह पिता बनने वाला है, खुश होगा,’ गुंजन मन ही मन विचार करती घर पहुंच गई थी. –क्रमश:
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पूर्व कथा
सुखसुविधा के हर साजोसामान के साथ प्रशांत और गुंजन खुशहाल जिंदगी जी रहे थे. इच्छा थी तो उन्हें एक संतान की. अचानक एक रात घर से बाहर टहलने के दौरान गुंजन का अपहरण हो जाता है. अपहरणकर्ता फिरौती में भारी रकम की मांग करते हैं. उधर, एक दिन अनजान महिला बंधी गुंजन की रस्सी खोल उसे अपहरणकर्ताओं के चंगुल से छुटकारा दिला देती है. रात बीतने का एक प्रहर अभी शेष है कि घंटी टनटनाती है. परेशान प्रशांत डरडर कर दरवाजा खोलता है, गुंजन को देख आश्चर्यमिश्रित हर्ष से उस का चेहरा खिल जाता है और डरीसहमी गुंजन पति के चौड़े सीने से लग रोतीबिसूरती बोलती है, ‘‘प्रशांत, अपहरणकर्ताओं ने मेरे खूबसूरत कंगन और कानों के कीमती टौप्स निकाल लिए…’’ गुंजन की सकुशल वापसी से सासससुर खुश थे. सास को बहू के गहनों की चिंता सता रही थी जबकि गुंजन को गहनों से अधिक अपनी घरवापसी प्रिय लग रही थी. वहीं, प्रशांत का बदलाबदला व्यवहार उसे बेचैन कर रहा था. वह गुंजन से कुछ खिंचाखिंचा रह रहा था. अपहरणकर्ताओं को फिरौती पहुंचाए बिना ही गुंजन का घर वापस आ जाना उसे अस्वाभाविक लग रहा था. ‘सिर्फ जेवर ले कर ही अपहरणकर्ता खुश हो गए…क्या गुंजन उन के पास सहीसलामत रही होगी?’ गुंजन के प्रति प्रशांत के प्यार की गरमाहट समाप्त होती जा रही थी. प्रशांत द्वारा उपेक्षित गुंजन दुखी और निराश रहने लगती है. इसी बीच, एक दिन आफिस में काम के दौरान गुंजन को उबकाई का एहसास हुआ और वह उलटी के लिए टायलेट की ओर भागी. अस्वस्थ महसूस करने पर वह आफिस से छुट्टी ले कर सीधे डाक्टर के पास गई. लेडी डाक्टर ने उसे गर्भवती होने की खुशखबरी दी. खुशी से दीवानी गुंजन यह खुशखबरी प्रशांत को सुनाने को आतुर हो जाती है. ‘अब प्रशांत का व्यवहार अच्छा हो जाएगा. यह जान कर कि वह पिता बनने वाला है, खुश होगा,’ मन ही मन ऐसा सोचती गुंजन घर पहुंचती है…
अब आगे…
गुंजन की आशा के विपरीत प्रशांत पिता बनने की बात जान कर स्तब्ध रह गया. उस के विचित्र हावभाव उस के भीतर छिपी बेचैनी को बयान कर रहे थे.
‘‘तुम तो कहती थीं कि उन बदमाशों ने तुम्हारे साथ कोई बदतमीजी नहीं की… तो फिर…’’ कह कर उस ने गुंजन का हाथ जोर से झटक दिया था और फिर अंटशंट बकना शुरू कर दिया था.
प्रशांत ने गुंजन से और अधिक दूरी बना ली थी. वह पति के समीप जाने को होती तो प्रशांत गुंजन पर कठोर नजर फेंक कर उस के समीप से हट जाता. और एक दिन प्रशांत के मन में छिपी बेचैनी उस के अधरों तक आ ही गई जब उस ने कड़े लहजे में कहा, ‘उन डकैतों का बच्चा यहां इस घर में नहीं पलेगा.’
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गुंजन यह सुन कर अवाक् रह गई थी. पत्नी से दूरी बनाता प्रशांत इन दिनों किसी अन्य स्त्री के समीप जा रहा था. गुंजन दिल पर पत्थर रख चुपचाप बरदाश्त कर रही थी.
प्रशांत के मन में चल रही उथलपुथल का वाणी से खुलासा आज हो गया था. वह गुंजन के साथ संबंध तोड़ देना चाहता था. प्रशांत की इच्छा को अपनी नियति मान गुंजन छटपटा कर रह गई थी और आखिर में उसे मायके लौट आना पड़ा था.
समय गुजरता गया और वह एक स्वस्थ व सुंदर शिशु की मां बन गई. पुत्र को आंचल में समेट फूली नहीं समाई थी. किंतु प्रशांत की अनुपस्थिति एक टीस बन कर उसे तड़पा गई थी.
इस के कुछ माह बाद ही प्रशांत ने गुंजन को तलाक दे दिया और फिर दोनों नदी की 2 धाराओं की तरह अपनीअपनी राह बह चले.
रात्रि को प्राय: गुंजन को प्रशांत की यादें सतातीं और वह उस के साथ के लिए तड़प उठती तो कभी मन में प्रतिहिंसा की ज्वाला भड़क उठती.
समय सरकता जा रहा था. गुंजन अपनी नौकरी और पुत्र की परवरिश में व्यस्त थी. नौकरी में उस की लगन और काम के प्रति निष्ठा से उसे तरक्की मिलती जा रही थी.
पुत्र अभिराम भी दिन पर दिन बड़ा हो रहा था और उस के नैननक्श और चेहरा हूबहू अपने पिता प्रशांत पर जा रहे थे.
बेटे का चेहरा देख गुंजन के मन में उम्मीद का दीया जल उठता कि काश, प्रशांत एक बार अपने बेटे को देख लेता तो उस का संदेह पल भर में ही दूर हो जाता.
किंतु प्रशांत से संपर्क टूटे तो अरसा बीत चुका था. मेधावी अभिराम स्कूलकालेज और विश्वविद्यालय की हर परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करता इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में आ गया था. उच्च श्रेणी के इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ाई करता अभिराम स्कालर था.
उस के कालेज में छात्रों की प्लेसमेंट के लिए विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियां आनी शुरू हो गई थीं. कंपनियों के रिकू्रट आफिसर, मानव संसाधन अधिकारी और प्रबंध निदेशक की टीम सभी छात्रों की लिखित परीक्षा और साक्षात्कार लेने के लिए छात्रों के चयन में जुटने शुरू हो गए थे.
अभिराम भी किसी उच्च स्तरीय कंपनी में नौकरी पाने के लिए परीक्षा की तैयारी में व्यस्त था. रात में सोने से पहले उस ने अपनी मां गुंजन से कहा था, ‘‘मम्मी, कल सुबह मुझे कालेज 7 बजे से पहले पहुंचना है और रात को भी देर हो जाएगी घर वापस आने में…पता नहीं कब तक इंटरव्यू चलते रहें.’’
अगले दिन अभिराम लिखित परीक्षा देने में व्यस्त हो गया और एक के बाद एक चरण पार करता हुआ वह अब साक्षात्कार के लिए अपना नाम पुकारे जाने की प्रतीक्षा में था.
अपना नंबर आया जान कर अभिराम ने आत्मविश्वास के साथ कमरे में प्रवेश किया. इंटरव्यू लेने के लिए 6 सदस्यों की टीम भीतर मौजूद थी. सभी की दृष्टि अभिराम के चेहरे पर जमी थी. अभिराम को अपलक निहारते और ‘प्रबंध निदेशक’ के चेहरे की समानता को देख टीम के दूसरे सदस्य चकित थे.
अभिराम कुछ असहज हो उठा. उस के माथे पर पसीने की बूंदें चमक उठी थीं. ‘‘तुम्हारा नाम अभिराम प्रशांत दीक्षित है…क्या तुम्हारे 2 नाम हैं?’’ एच.आर. अधिकारी उस के बायोडाटा को देख बोला.
‘‘सर, मेरा नाम अभिराम और पिता का नाम प्रशांत दीक्षित है.’’
रिकू्रट अफसर एकदूसरे को हैरानी से देख रहे थे. मानो कह रहे हों कि चेहरे के साथसाथ नाम में भी समानता है. हमारे एम.डी. का नाम भी प्रशांत दीक्षित है.
‘‘क्या करते हैं तुम्हारे पिता?’’ प्रबंध निदेशक ने अभिराम की फाइल को सरसरी नजर से देखते हुए पूछा.
‘‘सर, अपने पिता के बारे में मैं अधिक नहीं जानता,’’ इतना कह कर अभिराम सकपका गया फिर संभल कर बोला, ‘‘सर, मेरे मातापिता वर्षों पहले एकदूसरे से अलग हो गए थे. मैं अपने पिता के बारे में कुछ नहीं जानता क्योंकि होश संभालने के बाद उन्हें कभी देखा ही नहीं.’’
‘‘तुम्हारी मां?’’ एम.डी. दीक्षित के सवाल में जिज्ञासा थी. किंतु व्यक्तिगत प्रश्न पूछने पर एच.आर. अधिकारी और रिकू्रट अफसर ने शिष्टतापूर्ण आपत्ति जताई, ‘‘सर, व्यक्तिगत प्रश्न का नौकरी से क्या लेनादेना. छात्र की योग्यता से संबंधित प्रश्न पूछने ही बेहतर होंगे,’’ एम.डी. के कान में फुसफुसाते एच.आर. ने कहा.
‘‘मुझे कुछ नहीं पूछना. आप लोग जो चाहें पूछ लें.’’ प्रबंध निदेशक ने टीम से आग्रह किया और स्वयं उठ कर रेस्ट रूम में चले गए.
अभिराम ने सभी प्रश्नों का शालीनता से जवाब दिया और धन्यवाद तथा अभिवादन करता बाहर आ गया था. टीम के सभी सदस्य प्रबंध निदेशक से सवाल कर रहे थे, ‘‘सर, यह लड़का क्या आप की रिश्तेदारी में है? इस की शक्लसूरत और उपनाम आप से मेल खाते हैं.’’
‘‘हमें तो यों आभास हो रहा था कि आप का युवा संस्करण ही हमारे समक्ष बैठा था,’’ मानव संसाधन अधिकारी ने मुसकराते हुए कहा.
सहायक टीम की बातें सुन प्रबंध निदेशक दीक्षित के तेजस्वी चेहरे का ओज बुझ गया था, लेकिन अभिराम का चयन एक प्रथम श्रेणी की बहुराष्ट्रीय कंपनी में हो गया था और अपने मित्रों के साथ वह खुशी के उन पलों का आनंद ले रहा था.
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मम्मी को पहले खबर दे दूं. यह सोच कर अभिराम ने तुरंत फोन कर मां को अपने चयन की सूचना दी. ‘‘मम्मी, हम सब दोस्त सेलीबे्रट कर रहे हैं. आप खाना खा लेना,’’ उस का स्वर अचानक थम गया क्योंकि सामने एम.डी. दीक्षित खड़े थे.
वह अपलक अपनी प्रतिमूर्ति को देख रहे थे. मन में कई सारे सवाल उठ रहे थे पर उन में इतनी शक्ति नहीं थी कि वे अभिराम से कुछ पूछते, अत: बिना कुछ कहे वे अपने रूम की ओर बढ़ गए. पूरे दिन की थकावट के बाद भी नींद उन की आंखों से कोसों दूर थी. रात भर करवटें बदलते रहे.
अगले दिन सुबह अभिराम के घर जाने के लिए निकल पड़े थे. घर का पता अभिराम की बायोडाटा फाइल से नोट कर लिया था.
रास्ते भर विचारों में लीन रहे. उन की 2 बेटियां हैं लेकिन पुत्र की इच्छा उन्हें बेचैन किए रखती है. अभिराम को देख कर उन की इच्छा और अधिक बलवती हो उठी है.
अभिराम के घर पहुंच कर प्रशांत दीक्षित ने दरवाजे पर लगी घंटी को कांपते हाथों से बजा दिया था पर यह करते समय उन के कदम लड़खड़ा गए थे. दरवाजा गुंजन ने खोला था. दोनों एकदूसरे को अपलक देखते रह गए थे. प्रशांत के अधर कांपे किंतु बोल नहीं फूट सके.
गुंजन की आंखों में आश्चर्यमिश्रित हर्ष के भाव थे. शायद अपनी वर्षों की अभिलाषा के पूरे होने के मौके की यह खुशी थी.
कब से गुंजन को प्रशांत के पदचापों की प्रतीक्षा थी. कब से उस की राह देखती यही सोचती आई थी कि एक बार प्रशांत से अवश्य उस का सामना हो जाए.
बिना किसी भूमिका के उस के अधरों पर प्रश्न आ गया, ‘‘आज यहां की याद कैसे आ गई?’’
गुंजन के स्वर में छिपे व्यंग्य को समझ प्रशांत सकपका गया था.
‘‘कल मैं अपने बेटे से मिला. अभिराम को देख कर मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया. कितना होनहार है मेरा बेटा,’’ प्रशांत भावावेश में बोल रहा था.
‘‘आप का पुत्र? आज वह आप का पुत्र कैसे हो गया?’’ गुंजन का स्वर ऊंचा हो गया था.
अतीत में जिस पुरुष को कसमें खाखा कर मैं विश्वास दिलाती रह गई थी अपने गर्भ में पल रहे शिशु के पिता होने का और वह निर्दयी विश्वास नहीं कर सका था. संदेह के कीड़े ने उस का विवेक हर लिया था. वह आज कैसे उसे अपना बेटा कह सकता है.
गुंजन के मन में तभी से पति के प्रति कहीं न कहीं प्रतिहिंसा की ज्वाला धधक रही थी और आज प्रशांत के मुख से पुत्रमोह की बातें सुन, गुंजन के तनबदन में आग लग गई थी.
‘‘अभिराम, सिर्फ और सिर्फ मेरा पुत्र है, मैं ही उस की मां हूं और मैं ही पिता भी हूं.’’
आज वह प्रशांत के सामने भावनाओं में बह कर दुर्बल हरगिज नहीं बनना चाहती थी. आज वह अपने मन की भड़ास निकाल लेना चाहती थी.
‘‘आप बहुत पहले ही अपने संदेह और बेबुनियाद शक के कारण अपनी पत्नी और अजन्मे शिशु को त्याग चुके हैं. अब वह सिर्फ मेरा पुत्र है.
‘‘बेहतर होगा अब आप यहां से चले जाएं और हमें हमारे हाल पर छोड़ दें. अब अभिराम बड़ा हो गया है. आप की सचाई जान कर उसे बहुत दुख होगा. आप का अपना एक परिवार है, उसे संभालिए.’’
‘‘मुझे माफ कर दो, गुंजन,’’ प्रशांत के स्वर में पश्चात्ताप और निराशा स्पष्ट थी.
‘‘मैं कौन होती हूं क्षमा करने वाली,’’ धीमे स्वर में बोली गुंजन अचानक उग्र हो उठी, ‘‘अगर आप के बेटे की शक्लसूरत आप पर न होती तो क्या वह आप का बेटा न होता. जरूरी नहीं कि बच्चों की शक्लसूरत हूबहू मातापिता से मिलने लगे. तो क्या ऐसी स्थिति में उन के जन्म पर संदेह करना होगा?
‘‘कुदरत ने मेरी सचाई को सही साबित करने के लिए ही शायद मेरे बेटे के चेहरे को हूबहू उस के पिता से मिला दिया है. किंतु प्रशांत दीक्षित, तलाक के बाद अब हमारे रास्ते अलग हैं. आप जा सकते हैं.’’
प्रशांत निढाल सा लड़खड़ाते कदमों को जबरदस्ती खींचता घर से बाहर आ गया था. प्रशांत के विदा होते ही गुंजन की आंखों से आंसू बह निकले थे. जिस पति को देखने, मिलने के लिए वह वर्षों से बेचैन थी वही आज उस के सामने खड़ा गिड़गिड़ा रहा था. किंतु आज उस के प्रति गुंजन की भावनाएं वर्षों पहले वाली नहीं थीं.
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गुंजन के भीतर धधकती वर्षों की प्रतिहिंसा की ज्वाला धीरेधीरे शांत हो चली थी. शायद उसे अपनी बेगुनाही का सुबूत मिल गया था.